इन्द्रिय-ज्ञान जो बुधी को इन्द्रियों से मिलता हें ,
हमारे मन को चेष्टा से जोड़ता हें , जो संकल्प रूप ले
हमारी अभिलाषा कहलाता हें !
आत्मा कर्मो का साक्षी बन कर्मो को आधार प्रदान करता हें ;
और इस लिए कर्मो का कारन भी कहा जा सकता हें !
२) आत्मा पर माया का आवरण होता हें , शास्त्रों में लिखा हें !
यही आवरण , जन्म जन्म के संस्कारो को एक शरीर से
दूसरे शरीर में ले जाता हें !
३) संस्कार का अर्थ हें : संसर्ग में आने से मिला आकार !
हम जो कुछ भी इन्द्रियों से प्राप्त करते हें , वह बुधी में प्रकाशित होता हें ,
जो वृत्ति , इस ज्ञान को बुधी में प्रकाशित करती हें , जब अपने उद्गम
स्थान को वापसी करती हें तब माया के आवरण पर भी ,अपने
इन्द्रिय -ज्ञान का प्रभाव छोड़ देती हें जो संस्कार कहलाता हें !
४) आत्मा माया के आवरण से खुद को अलग रखना चाहता हें ,
जिससे परमतत्व खुद में संकुचन बनता हें , येही चेष्टा आवरण पर
उन्मोचन से ' वृत्ति ' का कारण बनती हें !
५) संस्कारो के आवरण से उठी वृत्ति , हमारी अभिलाषा और उस द्वारा हुए कर्मो में बहुत बड़ा योगदान रखती हे ! इसी विधि से ही हमको अपने पूर्व जन्मो के करम भोगने पड़ते हे! इस प्रकार आत्मा कर्मो को सीधा आधार नही दे सकता ! इस प्रकार हमारे करम संस्कारो से सीधे na जुड़ , संस्कारो में लिप्त हो जुड़ते हे !
६) अतः हम कह सकते हे की जब हम कर्मो को कमाना युक्त भाव से करते हे तब वे परमतत्व अंश आत्मा से सीधे न जुड़, आवरण प्रभाव के से जुड़ प्रकट होते हे ! दुसरे शब्दों में ' जब हम कर्मो को निष्काम भाव से करते हे , तब वे वृत्ति द्वारा आत्मा से उठ सीधे प्रकट होते हें !
७) इस प्रकार हमने समझा की जब करम अपने जनक ( आत्मा)के आगे प्रस्तुत होते हे तो पूरण हे , वरना अपूर्ण अवस्था में माया के आवरण पर संस्कार ही बनते हे ! अर्थात निष्काम भाव कर्मो में ; कारन से कार्य प्रकट हुआ , और अंतता कार्य अपने कारन में ही विलीन हो गया / या फिर प्रभाव -हीन हो गया .
इनको हम संस्कार -हीन करम भी कह सकते हें , जो pram-सुख karak हें .
3 comments:
ये जो मन हमारा ब्रह्म के अति निकट होता प्रतीत हो,
साकार हो कि निराकार हो पर प्रभो में प्रतीति हो।
फिर इष्ट में अतिशय निमग्न हो, प्रेम में व्याकुल रहे,
साक्षात करने की अभीप्सा में ही मन आकुल रहे॥
जो लक्ष्य ब्रह्म को मानकर, निष्काम तप, दम, भाव से,
करें वेद धर्म का आचरण, यदि अमिय सिक्त स्वभाव से।
सर्वस्य परब्रह्म ब्रह्मविद्या, प्राप्त कर सकते वही,
वही सर्वथैव असाध्य ब्रह्म को, साध्य कर सकते मही॥तसै तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा वेदाः सर्वाङ्गानि सत्यमायतनम् ॥८॥
यो वा एतामेवं वेदापहत्य पाप्मानमनन्ते ।
स्वर्गे लोके ज्येये प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति
उपनिषद रूपा ब्रह्मविद्या, आत्म तत्त्व जो जानते,
करें कर्म चक्र का निर्दलन, गंतव्य को पहचानते।
आवागमन के चक्र में, पुनरपि कभी बंधते नहीं,
अरिहंत, पाप व पुण्य के, दुर्विन्ध्य गिरि रचते नहीं॥
प्रेरक प्रवर्तक शक्तिमन, प्रभु नित्य है प्राकृत नहीं।
शुचि रूप उसका वास्तविक , फिर पायें हम कैसे कहीं ?
प्राकृतिक प्राणों की शक्ति सीमा से परे प्रभु मर्म है।
प्रिय प्राण में प्रभु प्रवृत अंश से प्रवृत जीव के कर्म हैं॥
मन बुद्धि के जो विषय हैं, परब्रह्म तो उससे परे।
मन बुद्धि में सामर्थ्य क्या, जो ब्रह्म का वर्णन करे॥
परब्रह्म शक्ति के अंश से, मन में मनन सामर्थ्य है।
परब्रह्म की मीमांसा को, बुद्धि मन असमर्थ हैं॥
सामर्थ्य वाणी में कहाँ जो ब्रह्म विषयक कह सके।
वाणी में जितनी वाणी है, किंचित न किंचित कह सके॥
यह ब्रह्म तत्त्व तो वाणी से, अतिशय अतीत अतीत है।
प्रेरक प्रवर्तक वाणी का, ज्ञाता है ब्रह्म, प्रतीति है॥
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